Thursday, June 5, 2008

जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने/ कुँअर बेचैन

जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने

दादी की हँसुली ने, माँ की पायल ने

उस सच्चे घर की कच्ची दीवारों पर

मेरी टाई टँगने से कतराती है।


माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी

एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना

यह अंतर ही संबंधों की गलियों में

ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना


जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने

बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने

उन दीवारों पर टँगने से पहले ही

पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है।


जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने

छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती

तबसे लिपे आँगनों से, दीवारों से

बंद नाक को सोंधी गंध नहीं आती


जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने

सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने

पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी

उस घर को घर कहने में शरमाती है।


साड़ी-टाई बदलें, या ये घर बदलें

प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता

कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम

तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता


जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने

खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने

उन संकेतों वाले भावुक घूँघट पर

दरवाज़े की 'कॉल बैल' हँस जाती है।

दो चार बार हम जो कभी / कुँअर बेचैन

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

रहते हमारे पास तो ये टूटते जरूर
अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिए

चाहा था एक फूल ने तड़पे उसी के पास
हमने खुशी के पाँवों में काँटे चुभा लिए

सुख, जैसे बादलों में नहाती हों बिजलियाँ
दुख, बिजलियों की आग में बादल नहा लिए

जब हो सकी न बात तो हमने यही किया
अपनी गजल के शेर कहीं गुनगुना लिए

अब भी किसी दराज में मिल जाएँगे तुम्हें
वो खत जो तुम्हें दे न सके लिख लिखा लिए।